बैगलोर- गणेश बाग में चातुर्मासिक प्रवचन सभा का आयोजन हुआ। सर्वप्रथम तीर्थेशऋषिजी म. सा. ने बहुत ही सुंदर गीत से प्रवचन सभा का प्रारंभ किया। प्रवचन को बढाते हुए चातुर्मास हेतु विराजित उपाध्याय प्रवर श्री प्रवीणऋषिजी म. सा. ने फरमाया कि श्रद्धा कैसे प्राप्त हो? श्रद्धा को प्राप्त करने में क्या-क्या बाधाएँ आ सकती है? श्रद्धा को पाने में प्रमुख बाधक तत्व-संशय (डर) है। जिस प्रकार माइक में आवाज रिपीट होने पर मन परेशान हो जाता है वही कार्य संशय करता है। यदि श्रद्धा के मार्ग पर चलना है तो अपने आप से एक कमिटमेंट करनी होगी कि मैं किसी भी परिस्थिति में संशय का शिकार नहीं बनूँगा। हमारे मन में संशय का प्रवेश इस प्रकार होता है जैसे बबूल के पेड को कांटे लगते है। बबूल के कांटे तो दूसरों को चुभते है लेकिन मन के संशय के कांटे स्वयं को ही चुभते रहते है। इसलिए समकित का पहला अतिचार कोई है तो वह शंका है। गुरूदेव ने आगे फरफाया कि शंका स्थिति परिस्थिति के कारण से नहीं होती है वह तो जब होती है तो स्वयं को भी स्पष्टता नहीं होती है कि आखिर मैं क्या चाहता हूँ? हमें पता ही नहीं चलता है कि हमें जो मिल रहा है उससे हम सुखी होगे क्या? आखिर क्या चाहते है हम? क्यों ये शंकायें बार बार मन में उभरती है? उपाध्याय श्री ने कहा कि प्रभु महावीर द्वारा प्रतिपादित कर्म सिद्धांत में संशय का सबसे बड़ा कारण है भय। क्रोध, अहंकार, माया व लोभ इनके कारण शंका नहीं होती है शंका का तो मूल कारण ही भय-डर है। ये डर हमारे भीतर इस कदर छाया है कि निकल ही नहीं पाता है। जब तक डर है संशय है। श्रद्धा की डगर पर चलना है सबसे पहले स्वयं को भय से मुक्त होना चाहिए। हम पल पल भय के साये में जीते रहते है। जब तक मन में भय की ग्रंथि है तब तक चक्षु उद्घाटित नहीं होते है। अज्ञान का अंधियारा बाद में है पहले भय का अॅंधियारा है। जब तक भय को जीत नहीं पायेंगे क्रोध, माया, मोह, लोभ रहेगा ही। कल हमें कुछ मिलेगा कि नहीं इसी चिंता में हम संग्रह करते है। मौत का भय उनको लगता है जिनको इस बात का डर है कि यह शरीर छूट गया तो अगला शरीर कैसा मिलेगा? यही भय हमको सामायिक, माला, प्रेम आदि आराम से करने नहीं देता है। आगे अपने प्रवचन को विस्तार से जाते हुए गुरूदेव फरमाते है यदि प्रमाद नहीं हो तो भय नहीं लगता है सजग व्यक्ति को कभी भय नहीं लगता है। यह आचारांग सूत्र और आज का साइंस भी कहते है। जब तक आप सजग हो भय की कोई संभावना नहीं है। जो प्रमाद करता है वह भयभीत है और जो भयभीत है वह कभी भी कुछ भी कर सकता है। इसलिए सर्वप्रथम कोई श्रद्धा के मार्ग में बाधक है तो वह है भय है। यदि बन सको तो बच्चे के समान बन सको जो माँ की गोद में भयमुक्त रहता है। उसी प्रकार अपने श्रद्धेय के प्रति आस्था हो जाये तो व्यक्ति भयमुक्त बन जाता है। जब तक जीवन में लापरवाही है तब तक भय भी है प्रमाद भी है और कभी कभी इस प्रमाद के कारण से शिखर पर पहुँचा हुआ व्यक्ति भी खाई में गिर जाता है। इसलिए प्रभु महावीर गौतम स्वामी को उसके मन की खिन्नता दूर करने के लिए 36 बार एक ही मंत्र बोलते है-समय में प्रमाद मत कर। बाकी सभी अतिचारों का प्रायश्चित है। लेकिन समय के प्रमाद की तो सजा भुगतनी ही पडती है। सबसे भयंकर अशातना है तो वह समय की अशातना है। भय से मुक्त होना है तो समय की आराधना करो। जिस समय जो कार्य करना है वह कार्य करना ही चाहिए। उपाध्यायश्री ने प्रमाद को दूर करने के उपाय बताये -स्वयं के साथ कमिटमेंट, स्वयं पर स्वयं का अनुशासन, सेल्फ पनिशमेंट (Self-punishment) जो यदि डिसीप्लेन (Discipline) और कमिटमेंट (Commitment) का पालन मुझसे नहीं होता है तो उसका प्रायश्चित लूंगा। संशय जब तक मन में है शांति की अनुभूति नहीं हो सकती है। मेरी गलती और भूल का मैं प्रायश्चित लूंगा । चातुर्मास में तपस्या की कड़ी में पहली 9 उपवास की तपस्या श्रीमती पायल सुराणा ने की। साथ ही सुजाता बाई तालेडा 8 उपवास की तपस्या के पचखाण लिये। गुरूवार को शाम 8.30 से संलेखना संथारा विधि सिखाने का कार्यक्रम होगा। दोपहर 2 बजे अठाई की धारणा होगी। 25 तारीख से आनंद जन्मोत्सव प्रारंभ होगा।
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