अर्हम् पुरुषाकार साधना
अंदुरनी बदलाव ही जीवन में शाश्वत सुधार ला सकता है। जब चेंज अंदर से आता है, तो बाहर बदलाव दिखाना स्वाभाविक है। हमारे अंदर की शक्ति को, ऊर्जा को, बहुत ही सीधे, बहुत ही सरल और आधुनिक टेक्निक्स (Techniques) से सवर्धन करने की कला सिखाता है – पुरुषाकार पराक्रम ध्यान साधना। पांच तत्वों से, मन्त्रों से युक्त यह साधना, स्वयं के अंदर की खोज का रास्ता है। स्वयं की खोज ही आत्मसिद्धि के पहली सीढ़ी है।
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अर्हम् पुरुषाकार साधना
परिचय

मनुष्य के जीवन में कर्म-धर्म और रिश्ते इन तीनों की भूमिका होती है। कभी कार्मिक, कभी आध्यात्मिक (Spiritual), कभी रिश्ते (Relational)- यह व्यक्ति को प्रेरित एवं उत्साहित करते हैं। मूलभूत तत्व है अध्यात्म का, अन्तर्शक्ति के जागरण का। जिसके लिए ध्यान साधना-पद्धतियों की एक सुव्यवस्थित रीति एवं नीति भारतीय परम्परा और अन्य परम्पराओं में भी प्राप्त होती है। ध्यान का लक्ष्य है – स्वयं में स्थिर हो जाना। मन को शांत-स्वस्थ करना। अंदर की सुप्त शक्ति का जागरण करना। तनाव मुक्ति, ये ध्यान का लक्ष्य है। यह ध्यान के प्राथमिक स्तर का परिणाम है। ध्यान का मूल उद्देश्य है अंतर की आत्मशक्ति का समग्र जागरण। जिस जागृति के बाद व्यक्ति में विश्व-मैत्री की भावना, विश्व-बंधुत्व की भावना और करुणा का जागरण होता है। उसके अतीत (Past) के जितने संस्कार हैं, कार्मिक आवरण (Layers) हैं, वो सारे समाप्त हो जाते हैं। ऐसी ध्यान-साधना-पद्धति के लिए एकाग्रता उतनी महत्वपूर्ण नहीं है, जितनी सजगता महत्वपूर्ण है।
यह कोर्स क्यों करना है?
पांच साल के बालक से लेकर 80-90 वर्ष के व्यक्ति के लिए ये साधना उतनी ही सहज और सरल है। इसके लिए किसी प्रकार की धार्मिक एवं पूर्व भूमिका की आवश्यकता नहीं है। किसी की इच्छा हो या न हो, उसमे श्रद्धा एवं आस्था हो या न हो, इस प्रक्रिया का जैसे ही कोई अनुसरण करता है, उसके अंतर्मन में शान्ति की अनुभूति शुरू होती है। ध्यान साधना अपना काम शुरू कर देती है।
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इतिहास
अर्हम् पुरुषाकार साधना का मूल सिद्धांत है कि कोई कल्पना नहीं करनी है, या कोई सुझाव नहीं देना है और न ही कोई चिंतन करना है। केवल स्वयं के साथ रहना है और रमण करना है। कोई मन्त्र नहीं, कोई स्मरण नहीं, केवल अनुभूति। इस अनुभूति के लिए एक बहुत सहज प्रक्रिया दी है। जिनका ध्यान सिद्ध हो गया है, उन शुद्ध आत्म्बोधित योगियों की जो ध्यान मुद्रा है, उनके आकार का एक चित्र, और इसी आकार में पाँच रंगों का प्रयोग करते हैं। एक आदर्श शुद्ध देहाकार को देखते हुए आँख बंद करना, आँख बंद करके दिखने वाले चित्र (After image) को, जो चेतना के अंदर है, उस बोध में अपने अंदर के प्रतिबिम्ब में तल्लीन होना। इस तरह स्वयं में स्थित होने के कारण से आत्मा में रमण करना सहज संभव हो जाता है। इसका प्रशिक्षण 2003, इंदौर से प्रारम्भ हुआ|
विधि
भगवान महावीर ने कहा कि व्यक्ति कभी क्रोध में, कभी हिंसा में एकाग्र हो सकता है, लेकिन वो एकाग्रता उसके जीवन का पतन करती है, उसके आध्यात्मिक स्तर पर (Spiritual Level) को और उलझा (complicate) देती है। एकाग्र होना ये बड़ी बात नहीं, पवित्रता में एकाग्र होना, उदारतम मानवीय मूल्यों में एकाग्र होना ये ज़रूरी है। यह कैसे हो सकता है? उसकी क्या प्रक्रिया है? उसकी क्या तकनीक है? इस तकनीक की खोज में बहुत सारी पद्धतियां विश्व में प्रचलित है। उन्हीं विधियों में परमात्मा प्रभु महावीर की एक आत्म-ध्यान की, आत्म-बोध की, आत्म-रमण की विधि है। जिसमें रमण करना है, उसका क्षेत्र, प्रदेश, स्थान पता होना चाहिए। देह आत्मा का मंदिर है। इस देह में चैतन्य सर्वव्यापी है। चैतन्य अमूर्त (shapeless) है तथापि उसकी क्षेत्र-परिधि शरीर में है। यही देहाकार उस आत्मा का आकार है। जिस शरीर में, जिस मुद्रा में, जिस आसन में शरीर होता है, वही आकार आत्मा का होता है। आसन के कारण से शरीर की स्थितियों में अंतर आ सकता है परन्तु आत्मा के बोध, श्रद्धा, ज्ञान, शक्ति में उससे कोई अंतर नहीं आता है।