भक्तामर स्तोत्रक्रुद्ध नृपति द्वारा आचार्य मानतुंग को बलपूर्वक पकड़वा कर 48 तालों के अंदर बंद करवा दिया गया था। उस समय धर्म की रक्षा और प्रभावना हेतु आचार्यश्री ने भगवान् आदिनाथ की इस भक्ति-स्तुति की रचना की थी, जिस से 48 ताले स्वयं टूट गये थे और राजा ने क्षमा माँगकर उनके प्रति बड़ी भक्ति प्रदर्शित की थी। ‘भक्तामर-स्तोत्र’ का पाठ समस्त विघ्न-बाधाओं का नाशक और सब प्रकार मंगलकारक माना जाता है।
कल्याण मंदिर स्तोत्रकल्याण-मंदिर-स्तोत्र के रचयिता आचार्य सिद्धसेन दिवाकर हैं। इसमें भगवान् पार्श्वनाथ की स्तुति होने से इसका नाम ‘पार्श्वनाथ-स्तोत्रम्’ भी है। कहा जाता है कि उज्जयिनी में वाद-विवाद में इसके प्रभाव से एक अन्य-देव की मूर्ति से श्री पार्श्वनाथ की प्रतिमा प्रकट हो गयी थी। इस स्तोत्र की अपूर्व-महिमा मानी गयी है। इसके पाठ और जाप से समस्त विघ्न-बाधायें दूर होती हैं तथा सुख-शांति मिलती है।
अर्हम् पुरुषाकार ध्यान पांच साल के बालक से लेकर 80-90 वर्ष के व्यक्ति के लिए ये साधना उतनी ही सहज और सरल है। इसके लिए किसी प्रकार की धार्मिक एवं पूर्व भूमिका की आवश्यकता नहीं है। किसी की इच्छा हो या न हो, उसमे श्रद्धा एवं आस्था हो या न हो, इस प्रक्रिया का जैसे ही कोई अनुसरण करता है, उसके अंतर्मन में शान्ति की अनुभूति शुरू होती है। ध्यान साधना अपना काम शुरू कर देती है।
अर्हम् अष्टमंगल ध्यान जीवन की उलझनों में ये अष्टमंगल - स्थापना मंगल, भाव मंगल बनकर साधक को बहुआयामी समाधान देते है। आप सभी को आमंत्रण है - एक ऐसी साधना सीखने के लिए जो कभी निष्फल नहीं जाती।
अर्हम् कल्याण मित्र जब शुरुआत सही होती है, तो रास्ते सुहाने होते है। तो यदि आपके नए (या पुराने) वास्तु में, रिश्तों की नयी शुरुआत में - सगाई, विवाह में, शिशु के जीवन के पहले पहले संस्कार में - साद पुराई, नामकरण कल्याण मित्र के द्वारा अर्हत्त पद्धति से करा सकते हैं।
चेतना को निमंत्रण कर, उसे भगवत शक्ति सम्पन्न बनाना, उसका बहुआयामी विकास एवं आध्यात्मिक उत्थान हो इसलिए माता-पिता बनने की इच्छा रखने वाले और गर्भधारणा कर चुके दंपत्ति अर्हम् गर्भसाधना के प्रशिक्षण में जुड़े और दिव्यता की अनुभूति करें।
मातृ देवो भवः पितृ देवो भवः बनने का प्रत्यक्षिक प्रशिक्षण लेने के लिए एवं अपने अंदर छुपे हुवे अर्हम् माता और पिता को उद्घाटित करने के लिए है - अर्हम् पेरेंटिंग।
हर क्रिया में धर्म है - खाने में, पीने मे, बोलने, चलने, उठने, बैठने में। 'युक्त आहार विहारस्य' यही बात गीता में श्रीकृष्ण ने कही - जो आहार और विहार युक्त हो जाता है और यही बात आयुर्वेद में कहते हैं, यही बात सहज ध्यान में कहते हैं। पर उसकी की प्रक्रिया सहज सिखाने का कार्यक्रम डिस्कवर यूवर सेल्फ (Discover Yourself) है।
मनुष्य के मन में जो अध्यव्यसाय है, मनुष्य के मन में जो भ्रम है, धारणा है, उससे मुक्त होने के लिए, इस मृत्युंजय संलेखना की साधना में अर्हम् बनाने की प्रक्रिया से साधकों को अनुभव कराया जाता है जिसके माध्यम से साधक- न केवल अंतिम समय में बल्कि जीवन का हर समय इस एहसास के साथ जी सकते हैं कि "मैं आत्मा हूँ - शरीर नहीं हूँ"। यह है संलेखना की साधना।
गुरूदेव श्री ऋषि प्रवीण, सामायिक के प्रत्येक सूत्र और विधि के रहस्यों को बहुत ही कुशलता से उद्घाटित करते हैं। वे हमें अतिचार व दोष, आलोचना व प्रतिक्रमण आदि समानार्थी लगनेवाले शब्दों के भिन्न अर्थ, यथार्थ अर्थ का बोध कराते हैं। इस कार्यक्रम से जुड़ के जीवन को सही मायने में संतुलन प्राप्त करने की कला सीखे।