पर्यूषण पर्व – अंतगड़ सूत्र
90 महापुरुषों की कहानी जिन्होंने अलग-अलग रास्तों से मुक्ति का शिखर छुआ। ये कहानियां अगर हमारे जीवन में उतर जाएँ तो सिद्धि शीला दूर नहीं।
पर्युषण महापर्व की महावाणी, जब उपाध्यायश्री अपने मुखारविंद से एक-एक कड़ी खोलते हैं, परमात्मा के आगम की गहराई से हम साक्षात रूबरू हो जाते हैं।
अपने पर्यूषण महोत्सव को अंतगड़ सूत्र के विवेचन से परिपूर्ण बनाएं।
पर्यूषण काल में हमारे पूर्वाचार्यों ने द्वारा एक परंपरा का निर्माण किया गया है जिसके अंतर्गत अंतकृतदशांग सूत्र के माध्यम से 90 भव्य आत्माओं का वर्णन किया जाता है जिन्होने परमात्मा के चरणों में अपने आपको समर्पित करते हुए ऐसा पुरूषार्थ किया है कि अपने भव के कर्मों को उसी भव में तोड़ दिया और सिद्ध बुद्ध मुक्त हो गए। हम भी यही भावना भाए कि हे परमात्मा जिस तरह उन 9० महापुरूषों ने आपकी आराधना करते हुए आपके बताए हुए मार्ग पर चलते हुए अपने भव का अंत किया हम भी आपके चरणों में उपस्थित हो रहे है और भावना भा रहे है कि हमारे भी भव-भव के बंधन टूट जाए।
सारे दुःखों का अन्त करने वाला अन्तगड़ सूत्र देव, दुःखों का प्रकाश करवा कर, दुःखों का अन्त करने वाला अन्तगड़ सूत्र। अज्ञात को ज्ञात करवाने वाला अन्तगड़ सूत्रदेव।| अपनों से अपनों की पहचान करवाने वाला अन्तगड़ सूत्र देव समस्या के समाधान की और ले जाता हुआ अन्तगड़ सूत्रदेव कैसे मन उलझता, कैसे मन सुलझता, कैसे उलझते हुए सुलझ जाता इसका सहज वरदान देता हुआ।
90 सिद्ध महापुरूषों के पुण्य साथ, तेजस शरीर के साथ, कार्मण शरीर के साथ जुड़ने के लिए “अन्तकृत सूत्र” का विधान किया।
संवत्सरी
जिन्होंने भी शाश्वत आनन्द को प्राप्त किया है। जो भी सच्चे सुख की अनुभूति कर रहे हैं। उन्होंने इस पर्व की आराधना करके उसे प्राप्त किया है। एक शाश्वत पर्व, एक सनातन है। तीर्थ की स्थापना तीर्थकर करते हैं। लेकिन संवत्सरी पर्व की स्थापना निसर्ग करता है। निसर्ग के संदेश को समझते हुए हर युग के प्रारंभ में, उत्सर्पणी काल के प्रारम्भ में, मनुष्य जाति सबसे पहले मनाने की शुरूआत करती है। वह क्षमापना पर्व है। इस पर्व की साधना, आराधना में ना केवल साधु-साध्वी, श्रावक-श्राविका बल्कि देवी-देवता भी समर्पित होते हैं। तीर्थंकर परमात्मा भी संवत्सरी पर्व मनाते हैं। परिपालना अपने चित व्यवहार से करते हैं।
इस पर्व के प्रति रही हुई गहरी आस्था, श्रद्धा जो हमें परम्परा से प्राप्त हुई है। सबसे पहले उसके प्रति कृतज्ञता का भाव लायें। इस भौतिक वातावरण के बीच भी पर्युषण पर्व की आराधना का बल दिया है। सन्मार्ग दिया है। ना जानते हुए, ना समझते हुए भी एक आस्था का सम्बन्ध दिया है। हम इस मार्ग पर चलते ही चलते हैं, जैन कुल में जन्मा बच्चा, बुढ़ा जवान सभी कुछ और करें या ना करें संवत्सरी पर्व की आराधना तो करता ही करता है। हमारी दीपावली कोई है तो, हमारा श्रेष्ठतम पर्व कोई है तो संवत्सरी है क्यों, इसका एक ही कारण है सारे पाप भय में से जन्मते हैं। भय मुक्त हो जाये तो पाप मुक्त हो जाते हैं। जब तक मन में भय है तब तक कषाय, गुस्सा, तनाव, राग-द्वेष भी है। जिस पल भय समाप्त हो जाता है। उसी पल पाप भी समाप्त हो जाता है। भय से मुक्त कोई करवाता है तो मैत्री भाव की साधना। इस साधना से ही जीव भय मुक्त हुए हैं, हो रहे हैं, और होंगे। आनन्द की अनुभूति मैत्री भाव से ही होती है। मैत्री, क्षमापना से सम्भव होती है। आठ दिनों की यह यात्रा हमारी मंगल भाव की तरफ ले जाये इस मंगल भाव से यात्रा करें।
क्षमापना का अर्थ है – इन आठों दिनों में समझने का प्रयास करेंगे। पुरूषार्थ करेंगे। आत्म सिद्धि का संकल्प लेकर जायेंगे। क्षमापना का अर्थ ये नहीं कि दूसरों की भूल को माफ कर देना। क्षमापना का अर्थ ये भी नहीं कि अपने से भूल हो गई उसके लिए मिच्छामि दुकड़म कह देना। क्षमापना कहते हैं। सक्षम बनना और दूसरों को भी सक्षम यानि शक्तिशाली बनाना।
क्यूँ मनाते हैं संवत्सरी पर्व
आज का दिन वो है जिसे पूरा विश्व मनाता है। तीर्थंकर परमात्मा भी इस पर्यूषण पर्व की आराधना करते है। दुनिया के चरा चर जीव जिनमें परिवर्तन की घडी आती है वह आज का दिन है। यह पर्व किसी व्यक्ति के साथ जुडा हुआ नहीं है। यह निसर्ग के साथ जुडा हुआ है। लेकिन यह संवत्सरी महापर्व किसी के साथ नहीं जुडा हुआ है यह निसर्ग के साथ जुडा हुआ है। इसलिए परमात्मा भी इसकी आराधना करते है। हमें बैठते समय आराधना करते समय यह अहसास होना चाहिए कि मेरा जैसा सौभाग्यशाली कोई नहीं है जिसको मैं सर्वेसर्वा आराध्य मानता हूँ जिसकी वो आराधना करते है उस धर्म की मैं आराधना करता हूँ। हम प्रतिदिन बोलते है मैं उस धर्म पर श्रद्धा करता हूँ जो तीर्थकर परमात्मा ने फरमाया है जो धर्म सर्व दुख का अंत करने वाला है। यह भाव हमेषा बने रहना चाहिए कि जिसकी मैं आराधना कर रहा हूँ वो सभी दुखों का अंत करने वाला है। दुखों का अंत तब ही होगा जब हम सभी जीवों के प्रति मैत्री भाव रखते हुए अभयदान की भावना रखते है। मैं धीरे-धीरे वहा तक पहुँच जाउेँ हमने अंतगड सूत्र में कई राजकुमार, गाथापतियों कई रानियों का वर्णन सुना ये सभी के जीव परमात्मा के चरणों में उपस्थित होते है और उसी भव में मोक्ष में चले जाते है। हम क्यों परमात्मा नहीं बन पा रहे है। हमने हमारे परमात्मा को अपने जीवन में नहीं उतारा है। आज का पावन प्रसंग है कि जिस वजह से हमने हमारे परमात्मा को जीवन में नहीं उतारा है हम भी उतारे। जैसे उन 90 महापुरूषों ने अपने जीवन में परमात्मा का उतारा है।
क्यों मनाते हैं संवत्सरी पर्व, क्या इतिहास है इसके पीछे। दुनिया का कोई इतिहास उठा कर देखिए – दीवाली के पीछे एक इतिहास है। नरकासुर को मारने का, निर्वाण कल्याणक का इतिहास नहीं, भविष्य है। दशहरे के पीछे इतिहास है – राम-रावण के युद्ध का। नागपंचमी को नाग का इतिहास है। होली को होली दहन का। किसी इतिहास को उठाकर देखोगे तो युद्ध, झगड़े का इतिहास ही मिलता है। कोई जीता और कोई हारा है। जितने भी इतिहास है आपके पास, संवत्सरी के अलावा चाहे महावीर जयन्ति, चाहे अक्षय तृतीया, जितने भी त्यौहार हैं वे किसी व्यक्ति के साथ जुड़े हैं। अक्षय तृतीया भगवान ऋषभदेव और श्रेयांस कुमार के साथ। महावीर जन्म कल्याणक, महावीर के साथ जुड़ा है। संवत्सरी का इतिहास, संवत्सरी का पन्ना याद रख लेना “आज मैत्री का जन्म हुआ है। दुश्मनी समाप्त हो गई दुनिया से और जिस दिन मैत्री का जन्म हुआ है, जिस दिन क्षमा का जन्म हुआ है, जिस दिन प्रेम का जन्म हुआ है। जिस दिन समर्पण का जन्म हुआ है। बिना धर्म के जिसका जन्महुआ है। धर्म बाद में आता है पहले संवत्सरी है। धर्म तीर्थकर के बाद आता है, संवत्सरी तीर्थकर के जन्म से पहले होती है। विश्व का अगर क्षमा का, मैत्री का कोई त्यौहार है तो संवत्सरी है।