संलेखना समाधिवरण
परिचय

जीवन का जो सर्वोच्च शिखर है वह साधु , श्रावक, गृहस्थ और सन्यासी के लिए एक ही होता है और वह है अंतिम समय। यह अंतिम समय पीड़ा का भी हो सकता है और क्रीड़ा का भी हो सकता है। ग़म का भी हो सकता है और खुशी का भी हो सकता है। नए मकान में जाने की खुशी हो सकती है और नया मकान अपने अनुरूप नहीं हो तो दुःख हो सकता है। और यह तय होता है, उस पर से के हम लोग कैसे पूर्व तैयारी करते हैं? यह तीसरा मनोरथ है। उसके लिए एक ही विज्ञान है कि आत्मा के चार गुण हैं – ज्ञान, श्रद्धा, चारित्र व शक्ति। इसमें जो शक्ति के काम करने की प्रक्रिया है वह यह है कि शक्ति न ज्ञान से काम करती है न भावना से, शक्ति न आदत से काम करती है। शक्ति केवल वही काम करती है जैसा उसे लक्ष्य मिलता है। इसलिए आप कई बार देखते हैं कि क्रोध करने की भावना नहीं है – फिर भी गुस्सा करते हैं। इसका उदाहरण आपके समक्ष अर्जुन माली का है। उसके सामने एक लक्ष्य आ गया था कि जिन्होंने मेरी पत्नी का बलात्कार किया है उन्हें मैं छोडूंगा नहीं। सही लक्ष्य तय करना बहुत सारे पापों से मुक्त करा देता है। सबसे ज़्यादा पाप लगता है, वह इसलिए कि हम लक्ष्य तय नहीं कर पाते हैं। शास्त्रों में इसे मिथ्या दृष्टि कहते हैं। हम नहीं जानते हैं कि हम कब और कहाँ मृत्यु को प्राप्त होंगे परन्तु हम यह निर्धारित कर सकते हैं कि हम जब भी मरेंगे आनंद से मरेंगे। वह दिन धन्य होगा जिस दिन शिखर समाधि पर आनंद से जाएंगे। मजबूरी में नहीं, लेकिन मजबूती से जाएंगे, परवश होकर नहीं बल्कि स्वस्थ होकर जायेंगे।
जीवन के कुछ शाश्वत सत्य है – जन्म के साथ मृत्यु। पहला सिरा है तो आखरी सिरा आएगा ही आएगा।
और इसके परे भी एक सत्य है वह यह कि जन्म यदि चेतना का शरीर में प्रवेश है और मृत्यु चेतना का एक शरीर से ज़ुदा होकर दूसरे शरीर में प्रवेश है। चेतना के आधार पर देखेंगे तो न जन्म है न मृत्यु है। क्यूंकि चेतना अमर है।
जन्म और मृत्यु ये शब्द केवल शरीर के साथ चेतना के सम्बन्ध को लेकर है। जब इस शाश्वत सत्य की अनुभूति होती है उसे संलेखना कहते है। मनुष्य के मन ने संसार, सहवास और सोच के कारण से शरीर के साथ स्वयं को यूँ जोड़ लिया है कि – शरीर यानि मैं हूँ, मैं यानि शरीर हूँ। लेकिन शरीर “मैं” नहीं हूँ, मेरा शरीर है , “मैं” मन नहीं हूँ, मेरा मन है। मैं परिवार नहीं हूँ, मेरा परिवार है।
अस्तित्व की अनुभूति जीवन में रहे तो अंतिम समय में भी उसमे रह आ सकती है। संलेखना यानि समाधि मरण नहीं, संलेखना यानि समाधि जीवन। उस संलेखना की ‘ समाधि जीवन की साधना’ हो सकती है इसलिए जीवन में हर दिन इस बात का एहसास, अनुभूति और व्यवस्था की ‘मैं शाश्वत हूँ, मैं चैतन्यमय हूँ, मैं चितस्वरूप हूँ। शरीर में मेरा वास है यह, अपितु यह शाश्वत वास नहीं है। जैसे इस शरीर को मैंने स्वीकार किया है वैसे ही शरीर को मैं छोड़ भी सकता हूँ।’ इस एहसास की आराधना प्रतिदिन सोते समय करना, ये संलेखना जीवन की शुरुआत है।
इस अनुभूति में जीने वाला व्यक्ति मृत्यु को सहज स्वीकारता है। इसलिए इसको मृत्युंजय कहते है। जैसे “वासांसि जीर्णानि यथा विहाय” – गीता में श्री कृष्ण कहते है की पुराने कपड़ों को छोड़ के नए कपड़ों को पहनना। पुराने शरीर को छोड़कर नए शरीर को स्वीकार करना।
इस क्रम को स्वीकार करने के लिए – एक दर्शन, आस्था और व्यवस्था के प्रशिक्षण की जरुरत होती है। इसका प्रशिक्षण २०१९, बेंगलुरु से प्रारम्भ हुआ|
यह कोर्स क्यों करना है?
मनुष्य के मन में जो अध्यव्यसाय है, मनुष्य के मन में जो भ्रम है, धरणा है, उससे मुक्त होने के लिए, इस मृत्युंजय संलेखना की साधना में अर्हम् बनाने की प्रक्रिया से साधकों को अनुभव कराया जाता है जिसके माध्यम से साधक- न केवल अंतिम समय में बल्कि जीवन का हर समय इस एहसास के साथ जी सकते हैं कि “मैं आत्मा हूँ – शरीर नहीं हूँ”। यह है संलेखना की साधना।
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